Thursday, March 22, 2007

ये मॉर्निंग शिफ्ट

ये मॉर्निग शिफ्ट भी अजीब शिफ्ट है। उबासी लेते हुए सूजी आंखों के साथ आप ऑफिस पहुंच जाते हैं जहां कुछ लोग शय्या पर गिरने की हालत में होते हैं और कुछ उठकर भी लुढकने की हालत में। चाय की तलब होती है लेकिन हेडलाइन की आफत। ब्रेकिंग न्यूज नहीं तो क्या कुछ तो करना है । ऐसे कैसै चलेगा । आदत से मजबूर हूं । इसलिए चाहकर भी 12 बजे से पहले नींद अपने आगोश में मुझे नहीं लेती । रुठी हुई माशूका की तरह इठलाती रहती है । और मै मनाता रहता हूं । आखिरकार मानती है लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी रहती है । एक दिन मन में आया पूजा पाठ शुरु कर दूं । मन को शांति मिलेगी । लेकिन कमबख्त वक्त ने दगा दे दिया । शिफ्ट बदलती रही । आज जिस वक्त पर उठा था । कल उस वक्त पर सोने की तैयारी में था । शिफ्टों में हमारी जिंदगी भी अपनी जगह से शिफ्ट हो गई है । पता नहीं मेरे जैसे और कितने लोगों को ऐसा एहसास होता है ।

3 comments:

pankaj sharma said...

बड्डा वूल्मर की मौत पुराना मुददा हो गया है। अब तो बहार है फैशन के पैशन की सो अब फैशन का स्टिंग और क्रोमा लोड करवा लो।

Anonymous said...

शिफ्टों की ये ज़िंदगी कुआंरेपन में इतनी खल रही है तो जरा सोच कर देखना कि शादी पर ली हुई 2 हफ्ते की छुट्टियां खत्म हो गई है और कल से ऑफिस जाना है। नाइट शिफ्ट का नंबर था लेकिन बॉस ने नए दूल्हे का ख्याल रखते हुए ईवनिंग शिफ्ट लगा दी है। यानी 2 बजे घर पहुंचना है लेकिन किसी से मॉर्निंग बदल ली है। मतलब 7 बजे दफ्तर पहुंचना है। अटक गए क्या, सोचो अरे सोचो तो सही।

मिहिर said...

लेकिन कोना मिलता कहां है...

एक जमाना था जब कस्बे में गर्मियों के किसी काटते से दिन में चाय की दुकानों में कोना तलाशते थे। तेज़ धूप और धूल के उठते बगूलों में चकरघिन्नी से नाचते, उड़ते-गिरते सूखे पत्तों की तरह दिन कब उड़नछू हो गए पता ही नहीं चला...ना तो किसी कोने की याद आई और ना ही तलाशने की जरूरत पड़ी। बाद में पता नहीं कब ये कोना पीछे छूट गया। बहुत कोशिश की...धूमिल की किसी उदास कर देने वाली कविता की तह में जाकर कोने को तलाशा ...मुक्तिबोध, नागार्जुन, निराला और राजकमल चौधरी भी याद आए...लेकिन कहीं कोई कोना नहीं मिला...जिसे अपना कह पाता..
...वो कोना दिल के किसी अंधेरे से कोने में आज भी चुभता है...इस टीस को आप भी महसूस कर सकते हैं...
मिहिर