Saturday, June 9, 2007

चोर पुराण

हिन्दी के कवि और यूनीवार्ता के पत्रकार विमल कुमार को रिपोर्टिंग के लिए संसद जाने का मौका मिला तो उनका परिचय नित एक नए पात्र से हुआ .. वो पात्र जो चोर था लेकिन सफेदपोश था ..उसका बोलबाला इतना था कि उसे पकड पाना मुमकिन नहीं ...ये चोर अपनी सत्ता को बचाए रखने में यकीन करना जानते हैं । लेकिन संसद के गलियारों के बाहर उन्हें वे चोर भी मिले तो अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए चोरी करते हैं । ये चोर व्यवस्था की उपज हैं । विमल जी ने इन चोरों की कहानियों के गौर से सुना और सुनने के बाद लिख डाला एक पुराण... चोर पुराण.. जिसमें चोरों की वंदना है , मंगला चरण है , प्रधानमंत्री के साथ उनका संवाद है तो लालू और नीतीश के साथ बातचीत भी ... अपना कोना में हम लाए हैं पुराण की कुछ पाती... ---------- ----------- राजनीति में इमानदारी का नाटक देखकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय वाले दंग रह गए । वे सोचने लगे ऐसा अभिनय तो वो भी नहीं कर पाते हैं । इस्तीफे का नाटक तो पता ही नहीं चल रहा है । लगता है ये सच्ची घटना है । चोर ने एनएसडी को सलाह दी कि वो अपने छात्रों को कुछ दिनों के प्रशिक्षण के लिए राजनीतिज्ञों के पास भेज दें । वहां से लौटने पर वो अभिनय में पक्के हो जाएंगे । पाद टिप्पणी...सुना है एनएसडी ने अपने नाटकों में राजनीतिज्ञों को गेस्ट आर्टिस्ट के तौर पर बुलाना शुरु कर दिया है । -------------- -------------- चोर जब मरे तो सरकार ने उन्हें ताबूत में रखकर दफना दिया । पर वे सारे ताबूत चोरी के थे । पुलिस आई और चोरों को मुर्दा पकड़ कर ले गई .. ------------ ------------ चोरों ने बीजेपी से प्रभावित होकर धर्मग्रंथों की दुहाई देते हुए कहा -- कृष्ण हमारे आदिपुरुष हैं और यही हमारी गौरवशाली परंपरा है क्योंकि वे बचपन में माखन चोर थे । ------------- ------------- सारे चोर इस बात से परेशान थे कि अब भी कुछ लोग क्यों है धरती पर इमानदार इमानदार लोगों के कारण ही उन्हें कहा जाता है चोर इसलिए चोर इमानदारों को भी चोर साबित करने पर तुले हुए हैं .. --------------- --------------- चोर और राष्ट्रपिता.. राजघाट पर कुत्ते घुमाने की घटना से आहत एक चोर ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सुझाव दिया कि जब आप अमेरिका जाएं तो अपने साथ कुछ बंदर और लंगूर भी ले जाए । चोर का यह सुझाव पीएमओ को इतना बुरा लगा कि अगले दिन पुलिस उसके घर आई और पकड कर ले गई.. पाद टिप्पणी.. प्रधानमंत्री के मन में राष्ट्रपिता के लिए सम्मान हो या ना हो..एक चोर के मन में राष्ट्रपिता के लिए काफी सम्मान है । ----------------- -----------------

Monday, April 9, 2007

परलोक से पहले इहलोक

मन मयूर को शांत करने के लिए इंसान ने ना जाने कौन कौन से जतन किए । आस्था के समंदर में गोता लगाया तो धर्मगुरुओं के प्रवचन को ब्रह्मवाक्य मान लिया। लेकिन वक्त के साथ आस्था का स्वरुप भी बदला और गुरुओं की नैतिकता भी । आज हमारे सामने एक से एक मॉडर्न गुरु हैं । हर गुरु का अपना एक अलग फलसफा है । लेकिन क्या वो इंसान के मन को सच्ची शांति दिला पाता है । ये सब कुछ जो दिखता है क्या महज एक छलावा भर है । बता रहे हैं अभिनव सिन्हा।

देवी माता जब भी देगी देगी छप्पर फाड़कर, गाड़ी-नौकर-चाकर देगी देगी छप्पर फाड़कर। आजकल प्रचलित यह भजन धर्म के मौजूदा स्वरूप और ईश्वर के आधुनिक भक्तों की कामना की एक बानगी देता है। आज धर्म की शरण में जाने के कारण बदल गये हैं। आध्यात्मिक शान्ति और निस्वार्थ भक्ति एवं समर्पण का स्थान सांसारिक सुख की लालसा ने ले लिया है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की तरह यहां भी विशुद्ध उपयोगितावाद हावी होता नजर आ रहा है। इस हाथ ले उस हाथ दे के सिद्धान्त से ईश्वर भी बरी नहीं हैं। भक्तजन अपनी भक्ति का तुरन्त प्रतिफल चाहते हैं। कोई इम्तहान में नम्बर पाने के इरादे से मंदिर जाता है तो कोई अच्छा वर पाने के लिए रोज सुबह जल चढ़ाता है। कोई चुनाव में टिकट पाने के लिए दरगाहों में चादर चढ़ाता है तो कोई अपनी नई फिल्म हिट कराने के लिए मत्था टेकता फिरता है। निवेश और मुनाफे के इस दौर में भक्तजन प्राय: अपनी भक्ति का निवेश करते हैं और बदले में कार्यसिद्धि के रूप में अच्छा लाभांश पाने की कामना करते हैं। आज धार्मिकता का एक नया उभार दिखाई देता है। लेकिन इसके पीछे की प्रेरक शक्तियां पहले से अलग हैं। इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि सर्वत्र व्याप्त सामाजिक असुरक्षा की भावना, सामाजिक अलगाव, अकेलापन, बढ़ता उपयोगितावाद और मूल्यहीनता आज लोगों को धर्म की ओर ले जाने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इसी माहौल में अनेक बाबाओं की धूम है। कोई जीतने की कला बता रहा है कोई मित्र बनाने और सफल होने की तो कोई जीने की कला सिखाने का दावा कर रहा है। एक ओर आसाराम बापू, श्री श्री रविशंकर, ओशो पंथी, सुधांशु महाराज और नागेन्द्र महाराज जैसे संन्यासी हैं, तो दूसरी ओर दीपक चोपड़ा, fशव खेड़ा, नार्मन विंसेंट पील जैसे मैनेजमेण्ट गुरू। पहले यह काम पfश्चम में पादरी और मनोचिकित्सक किया करते थे। अब यह दायरा व्यापक हो चुका है। मैनेजमेंय के लोगों से लेकर संन्यासी और साधु तक यह काम कर रहे हैं। लेकिन मजे की बात तो यह है कि साधु---सन्यासी जीने की कला सिखा रहे हैं। उनका सरोकार तो मनुष्य के इहलौकिक जीवन की बजाय पारलौकिक जीवन से होना चाहिए। लेकिन जनाब ये ऐसे संन्यासी नहीं हैं जो गुफा---कन्दराओं में रहते हों और कन्दूमूल पर जीते हों। ये हाई--टेक और टेक्नोलॉजी सैवी बाबा हैं। ये सेटेलाइट फोन रखते हैं ।ए- सी- कारों और हवाई जहाजों में चलते हैं। फाइव स्टार होटलों में ठहरते हैं। करोड़ों---अरबों रुपयों की सम्पत्ति के मालिक होते हैं। बड़ी संख्या में लोग इन बाबा लोगों की शरण में जा रहे हैं। इनके बीच भी एक किस्म का वर्ग विभाजन है। हर वर्ग के अपने बाबा और पंथ हैं। निम्न वर्ग और निम्न मèयम वर्ग के लोग जय गुरूदेव जैसे पंथों और सुधांशु महाराज जैसे बाबाओं के पास जाते हैं। नवधानाढ्य वर्ग के लोग ओशो, आसाराम बापू और रवि शंकर जैसे संन्यासियों के पास जाते हैं। पढ़ा--लिखा शहरी मध्य वर्ग जो आधुनिक हो गया है, शिव खेड़ा, दीपक चोपड़ा, स्पेंसर जॉनसन और नॉर्मन विंसेंट पील जैसे मैनेजमेण्ट गुरुओं को पढ़कर जिन्दगी में जीत जाना चाहता है। इनमें तमाम किस्म की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में लगे युवा विशेष रुचि लेते हैं। इन बाबाओं और मैनेजमेण्ट गुरुओं के पास हर वर्ग के लोग जा रहे हैं। वे भी जिनका भविष्य अनिश्चित्ता की अंधी गुफा में भटक रहा है और जिनके पास कोई विकल्प नहीं है और वे भी जिनके पास कथित भगवान का दिया सब कुछ है यानी वे खाये----अघाये लोग जिनके पास हर भौतिक सुख---सुविधा है लेकिन जिनका रिक्त कंगाल मानस अध्यात्म के मलहम की मांग करता है। मेहनतकश वर्ग और निम्न मध्य वर्ग में अपनी बदहाली और बेरोजगारी को लेकर गहरी निराशा व्याप्त है। यह निराशा जगह---जगह परिवार सहित आत्महत्याओं और युवाओं द्वारा आतंकवाद का रास्ता पकड़ने के रूप में सामने आ रही है। ऐसे हालात में धर्म और अध्यात्म एक सस्ते इलाज के रूप में भी सामने आते हैं। वे वंचित वर्ग के लोगों को इस लोक में धैर्यवान और विनम्र बनने का पाठ पढ़ाते हैं( और बदले में उनके स्वर्ग जाने का रास्ता साफ! बस कुछ साल और इस नर्क को चुपचाप सह लीजिए! युवा वर्ग को हाई सोसायटी के दर्शन करा दिये जाते हैं, जो उसे मिल नहीं सकती। वह उसके पीछे भागता रहता है और एक दिन निराश हो जाता है। फिर कोई आसाराम बापू या सुधांशु महाराज आते हैं अपने प्रवचन के साथ निराशा से उबारने। अगर कोई इन बाबाओं के प्रवचन का दृश्य देखे तो मार्क्स की वह उक्ति याद हो आती है जिसमें उन्होंने धर्म को अफीम कहा था। हजारों लोग अफीमचियों की तरह बैठकर झूमते रहते हैं। इन बाबाओं के अलावा कई छद्म विज्ञानों को भी खड़ा किया जा रहा है जैसे रेकी,प्रॉनिक हीलिंग, जेनपंथ,ताओपंथ, होलिसिटक मेडिसिन,फेंग शुई वगैरह -- वगैरह। अलगाव के मारे युवा वर्ग को यह भी लुभाता है। इसके अलावा नवधनाढ्य वर्ग जो डंडी मारते---मारते आज गाड़ी, नौकरों, बंगले आदि हर सुविधा से लैस हो गया है वह भी अपने पाप बोध से मुक्ति के लिए इन बाबाओं की शरण में आता है। कुछ बाबा तो दान -- दक्षिणा द्वारा स्वर्ग में सीट आरक्षित करने का सस्ता और टिकाऊ रास्ता बताते हैं। कुछ बाबा और ज्यादा रैडिकल होते हैं। वह बताते हैं कि शिष्य! तुम जिसे पाप समझते हो वह पाप नहीं! वह तो जग की रीत है! ऊंच-नीच तो परमात्मा की लीला है! दुख क्या है -- सुख क्या है सब माया है! इस तरह के प्रवचनों से आत्मा की ठण्डक पाकर सेठ---व्यापारी अपनी-अपनी कारों में वापस चले जाते हैं और फिर जग की रीत का निर्वाह करने लगते हैं। यानी डंडी मारना जारी कर देते हैं। बदले में इन बाबाओं को दे जाते हैं सोना--चांदी या हरे-हरे नोटों की गडि्डयां। इससे अलग शहरी उच्च मध्य वर्ग अपने जीवन के घिसे--पिटे ढर्रे से ऊबकर श्री श्री रविशंकर और ओशो जैसे बाबाओं के पास जाता है। बाबाओं की ये नस्ल इंद्रियभोगवाद को अध्यात्म और धर्म की चाशनी में डुबोकर परोसती है और सेक्स---संबंधी समाजिक वर्जनाओं से इस आधुनिक शहरी उच्च मध्य वर्ग को मुक्त कर देती है। ये बताते हैं कि ईश्वर से साक्षात्कार का रास्ता सेक्स है। ओशो की पुस्तक --संभोग से समाधि तक-- या धर्म के मुंह से कहलवाते हैं। खाओ--पिओ-मौज करो। श्री रवि शंकर ---आर्ट आफ लिविंग वाले संन्यासी भी एक किस्म के पापबोध से इस वर्ग के लोगों को मुक्त कराते हैं। पुराने समाज की नैतिकता को मूर्खता बताते हैं और एकदम दूसरे छोर पर जाकर उन्मुक्तता को जीने की आदर्श कला के रूप में समर्थन करते हैं। इस कला के दर्शन तो सबको हो जाते हैं मगर इस महंगी जीवन शैली में घुस पाना हरेक के बूते नहीं होती।उच्च और उच्च मèयवर्गीय जीवन का घोर सामाजिक अलगाव भी लोगों को इन आधुनिक बाबाओं की शरण में भेजती है। सामाजिक अकेलेपन और मित्रविहीनता के शिकार ये लोग अपने मूल्यबोध में घोर व्यक्तिवाद के कारण किसी भी किस्म की स्वस्थ सामूहिकता को तो पसन्द नहीं करते लेकिन इन बाबाओं के यहां होने वाले कर्मकांडों में उन्मादी भीड़ का हिस्सा बनकर कुछ देर के लिए अपने अकेलेपन से मुक्ति पा जाते हैं। यह अलग बात है कि यह क्षणिक तुष्टि उन्हें बार-बार नशे की खुराक की तरह ऐसे सत्संगों में खींचकर ले आती है जहां पशिचमी संगीत की तेज बीट और रहस्यमय रोशनियों के बीच वे घंटों तक उछल---कूद करते रहते हैं।

Saturday, April 7, 2007

हाय रे बीसीसीआई की बैठक

सचिन तेंदुलकर को बीसीसीआई ने नोटिस थमा दिया और साथ में युवराज को भी । लेकिन द्रविड की कप्तानी बच गई । चैपल को चपत के जगह मिली थपथपी .. वेंकटेश प्रसाद और रॉबिन सिह के साथ साथ रवि शास्त्री को मिला नया एसाइनमेंट.. क्या इसी के लिए बीसीसीआई की बैठक हुई थी । होना था हार का पोस्टमार्टम लेकिन उसके लिए बस एक लाइन काफी था । हम खराब खेले। बस इससे ज्यादा क्या कहना था । उसके लिए न तो कोई जिम्मेदार ठहराया गया और न ही किसी ने पाकिस्तानियों की तरह जिम्मेदारी लेते हुए खुद से इस्तीफा ही दिया । पाकिस्तान को देखिए कप्तान इंजमाम ने आयरलैंड के साथ हारने के तुरंत बाद इस्तीफा दे दिया। पीसीबी के चेयरमैन और सेलेक्टर्स ने भी इस्तीफा दे दिया । लेकिन डालमिया के खिलाफ इतनी मुश्किल से मिली कुर्सी क्या इसी दिन के लिए हासिल की थी पवार साहब ने । भला बताइए टीम खराब खेली तो उनका क्या कसूर .. वो क्यों इस्तीफा दें.. और चैपल की भी क्या गलती थी । वो बेचारे तो ड्रेसिंग रुम से तमाशा देख रहे थे । खराब खेला अगर कोई तो वो था युवराज और तेंदुलकर ..है ना चैपल जी.. असल में गोरी चमड़ी से हम इतने दबे हुए हैं कि उसकी बात से आगे सोच ही नहीं पाते । युवराज और सचिन को लेकर चैपल की नाराजगी जग जाहिर है और दोनो को इसी का खामियाजा भुगतना पडा । दोनो अब नोटिस का जवाब देंगे । और मै आपको पहले ही बता देता हूं सचिन को बांग्लादेश के खिलाफ ड्राप कर दिया जाएगा । आप चाहे तो मुझसे बाजी लगा लीजिए.. सचिन और युवराज ने अगर मीडिया में कोई बयान दिया और वो कोड ऑफ कंडक्ट के खिलाफ है दीजिए उनको नोटिस.. लेकिन ये नोटिस उसी दिन क्यों नहीं दिया था । युवराज ने क्या खता कि मुझे तो याद भी नहीं । असल में चैपल के चांटा मारने की जगह आपने उनकी गलत बात को भी सही साबित किया। उन्हें क्यों नहीं नोटिस दिया कि राजन बाला को एसएमएस क्यों भेजा । मीडिया में अपनी रिपोर्ट क्यों लीक की । या कॉरपोरेट फिल्म की बिपाशा बासु उनके जीवन में आई जिसने लैपटॉप से रिपोर्ट चुरा ली । बोर्ड के पास न तो जवाब है और न ही वो हिम्मत दिखा पाएगी चैपल को नोटिस भेजने की । और अगर भेजेगी भी तो चैपल उन्हें दिखाएंगे ठेंगा । इसलिए धर्म के तराजू पर सबको बराबर ट्रीट करने की जगह करवा दी अपने ही खिलाडियों की फजीहत। अरे सेलेक्टर महोदय आप सचिन का नहीं भारतीय क्रिकेट का नुकसान कर रहे हैं । सचिन आज जिस स्तर पर पहुंच चुके हैं वहां उनकी इमेज को खराब करना इन तुच्छ बोर्ड मेंबरों के बस की बात नहीं है । ये नोटिस भेजा गया सचिन को लेकिन इसके आतंक में पूरी टीम होगी । सिवाय द्रविड के । कप्तानी तो कर नहीं पाए। टीम को संभाल नहीं पाए चले लीडर बनने । लेकिन इतने के बाद अगर आपको लगता है कि टीम का भविष्य उज्ज्वल हैं तो जरा ठहर के । बांग्लादेश में हम जीतेंगे और भूल जाएगे कैरिबियन दौरे में हार का गम .. और लौट आएगे पुरान ढर्रे पर .. क्योंकि देश की जनता की तरह अपनी टीम पर लगा है लेबल.. हम नहीं सुधरेंगें।

Thursday, April 5, 2007

रफी बनाम किशोर

किशोर दा और रफी साब में कौन बड़ा? आज इस बात को लेकर अक्सर बहस होती है । लेकिन ये ऐसा विषय है जिसमें सीधे तौर पर किसी का जीत पाना मुश्किल ही नही नामुमकिन है। यूनीवार्ता के तेज तर्रार पत्रकार विनोद विप्लव इस विषय पर कम से कम एक दशक से काम कर रहे हैं । फिल्मों में गहरी रुचि और विषय की परख का अंदाजा इनकी लेखनी से आप खुद लगा लेंगे । आज वो संगीत की दुनिया को दोनो महारथियों की तुलना कर रहे हैं । मोहम्मद रफी और किशोर कुमार में से कोई भी हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी आवाज का जादू बरकरार है और तब तक बरकरार रहेगा जब तक इंसान के पास श्रवण क्षमता रहेगी। मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज के जरिये वर्षों तक संगीत प्रेमियों पर राज किया जबकि किशोर कुमार ने गायन के साथ साथ अभिनय कला एवं निर्देशन के क्षेत्र में भी अपनी छाप छोड़ी। ऐसे में दोनों के बीच किसी तरह की तुलना आसान नहीं है, लेकिन मै इसका दुस्साहस कर रहा हूं। किशोर कुमार भारतीय फिल्म उद्योग के अत्यन्त प्रतिभावान और प्रभावशाली शख्सियत थे। वह ऐसे जीनियस थे जिनसे फिल्म निर्माण का कोई भी क्षेत्रा अछूता नहीं था। चाहे गायन हो, संगीत निर्देशन हो, फिल्म निर्दशन हो, फिल्म निर्माण हो अथवा अभिनय हो हर क्षेत्रा में अपनी नहीं हैं। गीतों की संख्या के आधार पर निश्चित तौर पर किशोर कुमार से मोहम्मद रफी काफी आगे हैं, लेकिन आज के समय में, खास तौर पर युवा पीढ़ी में किशोर दा के गाए गए गीत रफी साहब के गाये हुए गीतों से कहीं अधिक लोकप्रिय है, लेकिन अगर दोनों के गाए गीतों के शब्दों या शायरी की खूबसूरती पर नजर डालें तो भी रफी साहब बड़े नजर आएंगे। इसके अलावा जहां तक गीतों में भावनाओं और संवेदनाओं का सवाल है रफी साहब न केवल किशोर दा से, बल्कि फिल्मी दुनिया के हर गायकों से अव्वल रहेगें।

केवल एक ही भाव में हो सकता है कि किशोर कुमार रफी को पछाड़ दें और वह है कॉमेडी। कुछ गाने जैसे `ये रात ये मौसम´ और `देखा एक ख्वाब को तो´ को छोड़ दिया जाए तो किशोर कुमार खालिस रोमांटिक गीतों में ज्यादा प्रभावी नहीं लगते हैं और दर्द भरे गीतों में भी किशोर का `दुखी मन मेरे´ एक अपवाद ही लगता है। शास्त्रीय धुनों में किशोर कुमार के ज्यादा गीत नहीं सुने गए हैं। आज कर्णभेदी शोर वाले अश्लील गीत ही फिल्म संगीत की पहचान बने गये हैं। अगर आप कुछ मटकती हुई नंगी कमर को किसी भी कानफाडू गाने के साथ मिला दें तो आपका वीडियो हिट हो जाएगा। गीतों को रचने के नाम पर पुराने गीतों की नकल हो रही है। आज ए- आर- रहमान जैसे रीमिक्स कलाकार को ही बड़े से बड़े आयोजनों और बड़ी से बड़ी फिल्मों के लिये संगीत बनाने की जिम्मेदारी सौपी जाती है जबकि इनसे कहीं बेहतर कलाकार जैसे नौशाद साहब या खैय्याम जैसे पुराने एवं मंजे हुए संगीतकारों को कोई पूछता नहीं है, वैसे समय में रफी साहब के सुरीले और कर्णप्रिय गानों को तो छोडि़ये, किशोर दा के अर्थपूर्ण और मधुकर गीतों को भी पसन्द करने वाले कम ही लोग बचे हैं। हालांकि उनके कॉमेडी और तेज गति वाले गानों की मांग युवा पीढ़ी में आज भी बनी हुई है। रफी साहब की सबसे बड़ी खूबी गीतों को गाने की उनकी विशिष्ट शैली थी, जबकि किशोर दा के गीतों की खूबी उनके गाने की सामान्य शैली थी। रफी के गाये हुए ज्यादातर गानों को सुनकर ऐसा लगता है कि वह गीत कोई विशिष्ट गायक गा रहा है। इसी तरह की विशिष्टता के- एल- सहगल की थी। किशोर कुमार के गाये हुए ज्यादातर गानों को सुनकर ऐसा लगता है कि हमारे बीच का ही कोई व्यक्ति उसे गा रहा है। यही किशोर दा की लोकप्रियता का राज है। किशोर कुमार की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि उन्होंने कठिन से कठिन गीतों को भी इस तरह से गाया कि सुनने वालों को ऐसा लगे कि वह भी यह गीत गा सकता है। दूसरी तरफ रफी साहब के सामान्य गीतों को गाना भी काफी मुश्किल होता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान यह देखा गया है कि गीत-संगीत के कार्यक्रमों एवं प्रतियोगिताओं में ज्यादातर गायक किशोर कुमार के गाये हुए गीतों को गाना अधिक पसन्द करते हैं।
संगीत की महफिलों में नये कलाकारों को रफी के गीत गाने में मुश्किल होती है। के- एल- सहगल, तलत महमूद, हेमन्त कुमार और मुकेश के भावपूर्ण गीतों को गाना तो और भी मुश्किल होता है और इसलिये उनके गीतों की नकल करने वाले कम ही गायक पैदा हुए। इन गायकों के गीतों को रीमिक्स नहीं किये जाने का कारण यह भी है कि उन गीतों की नकल हो ही नहीं सकती। इसी कारण से रफी के रीमिक्स किये गये गीतों की संख्या भी कम है। कल्पना की जा सकती है कि `ओ दुनिया के रखवाले´, `मधुबन में राधिका नाचे रे´, `देखी जमाने की यारी´ और `जाने क्या ढूंढती रहती है ये आंखें मुझमें´ जैसे गीतों की रीमिक्स बनाने की कोशिश किस कदर हास्यास्पद एवं भद्दी लगेगी। यहां तक कि `पर्दा है पर्दा´, `ओ मेरी महबूबा´ और `आ आ आ जा´ जैसे रफी के गाये हुए गैर शास्त्राीय गीतों को भी रीमिक्स करने के लिये अच्छे गायक नहीं मिलते। पचास और साठ के दशक के उनके अधिकांश गीतों को रीमिक्स नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर किशोर कुमार के गाये `रूप तेरा मस्ताना´ वाले गीत की रीमिक्स अगर असल गाने से बेहतर नहीं तो उसके बराबर तो थी ही। यह रीमिक्स काफी हिट भी हुई। यह सही है कि इस गीत का संगीत देने वाले आर- डी- बर्मन अत्यन्त प्रतिभाशाली थे और उन्होंने फिल्म संगीत को एक नयी दिशा दी। लेकिन उनकी प्रतिभा उनके पिता एस- डी- बर्मन से सुर की मिठास के मामले में आधी भी नहीं है। फिर भी लोग एस- डी- बर्मन को लगभग भूल ही गए है, क्योंकि `ये दुनिया अगर मिल भी जाए´, और `जलते हैं जिसके लिए´ जैसे उनके गीतों को रीमिक्स नहीं किया जा सकता।
रफी के गाने संगीत या रिद्म के अलावा आवाज की जादूगरी पर आधारित थे। अब हम वही आवाज और प्रभाव दोबारा पैदा नहीं कर सकते। रफी के ज्यादातर गीतों में बेहतरीन गायकी, अद्भुत लयबद्धता, जटिलता और अभिनय की कला का समावेश था। खुद किशोर कुमार ने कहा था, ``रफी साहब एक महान गायक हैं। जिस श्रेष्ठता के साथ उन्होंने कुछ दशकों तक फिल्म जगत में राज किया उस तरह से कोई दूसरा नहीं कर सकता है।´´ रफी के गीतों को गाना मुश्किल इसीलिए है क्योंकि रफी में विस्तृत लयबद्धता का गुण था। रफी ने अपनी इस क्षमता का भरपूर प्रयोग किया था। इसके अलावा उन्होंने अपने गीतों में अपनी आत्मा भी डाल दी थी। नौशाद के अनुसार रफी ही अपने सबसे बड़े आलोचक थे। कई बार वे उनसे (नौशाद साहब से) कहा करते थे कि वह गाने से संतुष्ट नहीं हैं। रफी साहब गीत की रिकार्डिंग को `ओके´ कर दिये जाने के बाद भी वह उस गाने को दोबारा गाना चाहते थे और उन्होंने कई गाने दोबारा गाए। रफी साहब को कुदरत ने ऐसी नियामत बख्शी कि वह अपनी आवाज को बखूबी उसी तरह ढालते थे जिसके लिए वह गाना गा रहे होते थे। यह एक ऐसी कला थी जो उनसे बेहतर कोई नहीं जानता था। आप सुनकर बता सकते थे कि गाना देव आनन्द, दिलीप कुमार, धर्मेंन्द्र, शम्मी कपूर या जॉनी वॉकर के लिए है। कोई भी गायक जो अपने आप में ईमानदार है वह स्टेज पर रफी के गाये गीत गाने से पहले दो बार जरूर सोचेगा। उस भाव, लय और परिपक्वता की हूबहू नकल असंभव है। आज कितने ऐसे गायक हैं जो रफी की आवाज की उत्कृष्टता और सम्पूर्णता के करीब भी आते हो। आज के एक प्रतिभाशाली संगीत समायोजक और अरेंजर का कहना है, ``रफी साहब के अधिकतर गानों को हम जैसे `नश्वर´ गाने के लायक नहीं है। हमें सिर्फ उन्हें सुनना चाहिए और उनका कृतज्ञ होना चाहिए।´´ -
विनोद विप्लव का यह आलेख साची प्रकाशन की जल्दी ही छपने वाली किताब - मेरी आवाज सुनो - में शामिल है।

Wednesday, March 28, 2007

चश्मा चेक करा लो... प्लीज़

सफलता इंसान की कमजोरियों को छुपा देती है जबकि नाकामी उसकी एक- एक खामी दुनिया के सामने उधेड़ कर रख देती है। टीम इंडिया और खासकर चैपल के साथ आज कुछ ऐसा ही हो रहा है । वर्ल्ड कप में वेस्टइंडीज के कूचे से टीम बेआबरु होकर निकली तो पूरे देश के गुस्सा सातवें आसमान पर था । लोग इस नाकामी को पचा नहीं पा रहे थे । हार हजम नहीं हो रही थी। घर का बेटा अगर बिगड जाए तो बाप की कितनी गलती । उसकी परवरिश को गलती मानी जाए या फिर बेटे की फितरत । खिलाडी हारे तो मैदान में । वहां चैपल तो नहीं थे । न ही छक्के मारते वक्त सचिन का बल्ला गुरु ग्रेग ने पकडा, और न ही युवराज को कैच लेते वक्त उन्होंने लंगडी मारी । वो तो एक कड़क टीचर की तरह अपनी मर्जी से काम करते रहे । सही या गलत जो भी था नजरिया चैपल का था । वो बस अपनी सोच के मुताबिक काम करते रहे । लेकिन गुरुजी अगर बच्चों को बिगाड रहे थे तो घर के बाकी बुजुर्ग यानी बीसीसीआई के अधिकारी क्या कर रहे थे । वो अंडा सेने में व्यस्त थे या अपनी रोटी सेंक रहे थे । चैपल पसंद नहीं थे तो पहले ही उनकी छुट्टी कर देते । चैपल ने आने के साथ ही टीम में की नई प्रयोग किए । बायोमेकेनिस्ट की सेवा ली । साइकोल़ॉजिस्ट को बुलाया । कमांडो ट्रेनिग दिलाई । एक से एक तरह से प्रैक्टिस करवाई । कभी मैकग्रा और एनतिनी की उंचाई पर मशीन को फिट करवा कर बॉल फिंकवाई तो भी फिल्डिंग के लिए अलग अलग नुस्खे अपनाए । लेकिन टीम इंडिया के गधे ऐसे थे कि घोड़े कभी बन ही नहीं सकते थे । आखिर फर्क नस्ल का था । चैपल ने आते ही बताया कि टीम से उपर कुछ भी नहीं । सौरव गांगुली का फॉर्म खराब चल रहा था । सभी चैनल से लेकर देश की जनता उन्हें बिठाने की बात कर ही थी .. वो सब ठीक था । लेकिन एक गोरे ने अपने महाराज को बैठने की सलाह क्या दे दी .बंगाल की खाडी में सुनामी आ गया । ज्योतिषियों ने ग्रहों की पूजा की और फिर जाकर हुआ मंगल मंगल । दादा फिर टीम में आ गए । अब अच्छा खेल रहे है तो चैपल अच्छे खेल के लिए आज उनकी तारीफ भी कर रहे हैं । तो भई सच क्यों कडवी लगती है । अपना देश महान है । यहां जिम्मेदारी को एक कंधे से दूसरे कंधे पर उछालने की रवायत है । खुद कोई अपनी सीना आगे नहीं करना चाहता । इसलिए आज चैपल को विलेन बनाया जा रहा है । बनाना है तो तेंदुलकर को विलेन बनाओ ना । महानता को चोला ओढ रखा है । लेकिन जब जरुरत होती है तो कितनी बार टीम को जिताया है । कभी उनकी पीठ की नस खींच जाती है । कभी टेनिस एल्बो में दर्द उभर आता है । तो कभी ब़ॉल ही इतनी शानदार होती है कि वो पिच को बाय कर देते हैं । श्रीलंका के खिलाफ देखा किस तरह बोल्ड हुए । हाय से वनडे के नम्बर वन प्लेयर । तो जब कोई जिम्मेदारी नही ले रहा है तो चैपल ही क्यों बने बलि का बकरा । हिन्दुस्तानियों के संगत में रहने का असर उनपर भी हो गया । बस कह दिया उनकी मनमाफिक टीम नहीं मिली । ईमेल के बाद एसएमएस का खेल हो गया । पत्रकार खिलाडी हो गए । एक चैनल ने लगाया छक्का तो दूसरे ने चौका । राजन बाला जी अंपायर । सच तो ये हैं कि गलती किसी की नहीं है । गलती खेल की है । खेल है तो जीत भी होगी और हार भी । अपनी दिक्तत बस इतनी है कि ख्वाब टूटते देखता नहीं चाहते । और ख्वाब टूटते हैं कि आखों से खून निकलता शुरु हो जाता है । और उस खून के चलते हर कोई हमें खूनी दिखने लगता है । जबकि असल में कोई खूनी नहीं होता । ये तो बस हमारे देखने का नजरिया है । जो देखना चाहते हैं वहीं देखते हैं । और विलेने की ही तलाश करनी है तो चैपल से बेहतर और कौन मिलेगा .....

Monday, March 26, 2007

मत रो मेरे यार

टीम इंडिया की हार को खिलाड़ियों के मत्थे आप क्यों मढ रहे हैं । सत्येन्द्र जी आपको बताएंगे कि अपने लाडलों के लिए हम छाती क्यों नहीं पीटे । कोलकाता में सन्मार्ग से इनकी जो गाड़ी खुली वो इटीवी के दफ्तर, हैदराबाद और सहारा नोएडा होते हुए वीडियॉकॉन टावर, यानी आजतक की गुमटी पर आज रुकी हुई है । यहां बत्ती रेड हैं । इसलिए रुके हुए हैं । डेढ दशक से भी ज्यादा हो गए इन्हें के फैक्टर( कलम और की-बोर्ड ) से जूझते हुए .. लेकिन जोश आज भी कम नहीं है .. टीम इंडिया की हार के दस कारण सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव करे कोई भरे कोई। टीम इंडिया के साथ भी यही हुआ। बरमूडा ने बांग्लादेशों के हाथों हार भारत की नाक कटवा दी। अब बरमूडा नहीं जीता तो इसमें हमारे रणबांकुरों का क्या कसूर। अब सवाल उठ रहा है कि आखिर इस हार का जिम्मेदार कौन है--कोच, कप्तान, खिलाड़ी? सीधे किसी को दोषी ठहराने की जगह क्यों न हम ठीक से इसकी पड़ताल करें कि आखिर टीम क्यों हार गई।

1. बरमूडा में अच्छे खिलाड़ियों का न होना। भला इतनी कमजोर टीम कोई देश भेजता है। अगर बरमूडा की टीम ठीक होती तो वो ग्रुप राउंड के आखिरी मैच में बांग्लादेश को जरूर हरा देती और फिर भारत आराम से पहुंच जाता सुपर एट में। बरमूडा को किसी भी कीमत पर माफ नहीं किया जाना चाहिए। अगर बरमूडा के खिलाड़ियों के नाम और शक्ल याद रहते तो उनके पुतले फूंके जा सकते थे। 2. दूसरा कारण तो अब सर्वविदित हो गया है। दूसरी वजह हैं इंदिरा गांधी। इस पर ज्यादा चर्चा की गुंजाइश नहीं है। अब ये सबको पता चल गया है कि अगर उन्होंने बांग्लादेश नहीं बनवाया होता तो पहले मैच में भारत को झटका नहीं लगता। 3. भारत की हार की एक अहम वजह सेना की लापरवाही भी रही। टीम के लिए कमांडो ट्रेनिंग में ढील बरती गई। अगर कमांडो ट्रेनिंग ठीकठाक हुई होती तो शायद बात कुछ और होती। ट्रेनिंग के फुटेज खूब दिखाए गए लेकिन मुझे नहीं लगता कि ट्रेनिंग जोरदार हुई होगी। कम से कम खिलाड़ियों की फील्डिंग देख कर तो ऐसा ही लगा। 4. लोगों ने जप-तप-पूजा-पाठ तो खूब किए लेकिन इसमें नियमों का पालन ठीक से नहीं किया गया। पूजा पाठ भगवान के लिए कम कैमरों के लिए ज्यादा किए गए। यही वजह रही कि देवता आशीर्वाद देने की जगह नाराज़ हो गए। 5. लोगों ने गाना तो खूब गाया लेकिन बेसूरा। बप्पी दा ने एलबम रिलीज करने के पहले ही टेलीविजन स्टूडियो में बेसूरा गाना सुनाया। टीम के खिलाड़ियों का मन उचट गया। अति तो तब हो गई, जब राखी सावंत ने भी गाना गा दिया। सब गा रहे थे, सभी गायक बन गए थे। इतने गाने कि क्रिकेटरों का सिर दुखने लगा। नतीजा सामने है। 6. राखी ने कह दिया कि कप लेकर लौटे तो एयपोर्ट पर डांस करूंगी। खिलाड़ियों को इतनी नैतिक गिरावट पसंद नहीं थी. 7. सातवां कारण भी राखी सावंत ही है। कह दिया कि कप लेकर लौटने पर सभी खिलाड़ियों को एक-एक पप्पी देगी। खिलाड़ियों की पत्नियों ने साफ चेतावनी दे दी थी। अब राखी की पप्पी से बचने का यही उपाय था। 8. टीम 2011 के वर्ल्ड कप पर ध्यान केंद्रित कर रही है, इसलिए इस बार उसे हार का मुंह देखना पड़ा। 9.नौवां कारण वेस्ट इंडीज में एड शूटिंग का कोई इंतजाम नहीं था। रैंप पर चलने की भी कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। इससे खिलाड़ियों का तारतम्य बिगड़ गया। उनकी लय टूट गई। 10.दसवां कारण बरमूडा के खिलाड़ी जब बांग्लादेश से मुकाबले से पहले भारतीय खिलाड़ियों से मिलने पहुंचे, तो उन्हें साफ चेतावनी मिली की बांग्लादेश को हरा कर दोबारा उन्हें वर्ल्ड कप के चक्कर में मत फंसा देना। बड़ी मुश्किल से इस झमेले से निकले हैं। जितनी गालियां सुननी थी, वो भी सुन चुके हैं। इसलिए दोबारा इसमें फंसने का कोई मतलब नहीं। बरमूडा के खिलाड़ी भारतीय खिलाड़ियों की बहुत इज्जत करते हैं, बात मान ली। कारण और भी हैं लेकिन अब कितना बताएं.........

बाबा की याद में

यूपी में चुनाव का खयाल आते ही नागार्जुन की कविता याद आ गई... श्वेत श्याम रतनार अखियां निहार के, सिंडिकेटी प्रभुओं की पगधूरि झाड़ के दिल्ली से आए हैं कल टिकट मारे के खिले हैं दांत ज्यूं दाने अनार के आए दिन बहार के

Sunday, March 25, 2007

मत हो इमोशनल...

हमलोग इतने इमोशनल क्यों हैं । टीम वेस्टइंडीज में हार गई तो लगे स्यापा करने । अरे भई खेल में हार जीत तो लगा रहता है । तो एक बार और हार गए तो क्या हो गया । वेस्टइंडीज सीरीज याद है या फिर भूल गए । कुछ ही महीनों पहले की बात है । तब हारे थे तो किसी ने धोनी का घर तोडा था ? किसी ने पुतला जलाया था और किसी ने टीम इंडिया की अर्थी निकाली थी ? नहीं । तो अब क्यों । सिर्फ इसलिए कि ये वर्ल्ड कप था और टीम को ये जीतना चाहिए थे । तो भैया आपके इमोशन का खिलाडियों ने ठेका लिया है क्या ? क्या उन खिलाडियों ने कहा है कि वो जो भी करे .. उसका महिमामंडन करो । देवता की तरह पूजा करो । और अगर अपने मन से करते हो तो फिर इतना दर्द क्यों होता है दिल में । दिल को मजबूत बनाओ न भाई । पेशे की तरह खेल को खेलो । जीत गए तो अच्छा, नहीं जीते तो अच्छा । लेकिन हम हैं बेशर्म । खुद तो खेल नहीं पाए । बांग्लादेश से पीटे । श्रीलंका के खिलाफ धूल चाटा । इसके बाद प्रभु से मना रहे हैं । हे देवता बरमूडा को जीता दो । बांग्लादेश को हरा दो । हाय रे हमारी किस्मत । अरे भई अपनी गली के शेर हैं । बाहर निकले तो एक मरियल कुत्ता भी उन्हें काट लेता हैं । और एक नहीं पूरी टीम को रेबीज का इंफेक्शन हो जाता है । अगर आप चाहते हैं कि टीम वाला रेबीज का कीड़ा आपको नही काटे तो मेरी तरह हर बार टीम इंडिया के हारने पर शर्त लगाए । यकीन मानिए हर बार आप ही जीतेंगे ।

Friday, March 23, 2007

कुछ खाने का मूड है

क्या आपका जायका सिर्फ कमला नगर में मिलने वाले चाचा के छोले से झकाझक हो जाता है । या फिर आप उडुपी के शौकीन है । गंगा ढाबा गए कभी या नहीं । टेफ्लास नहीं गए तो फिर क्या जे एन यू का मजा लिया । अरे उससे भी ज्यादा तो कॉलेज की कैंटीन में आता था । या इस सब से ज्यादा आपको गर्लफ्रेंड के बनाए परांठे पसंद आते है । हाय हाय कितना इंतजार रहता था । एक दुनिया तो ये है जहां जेब में रोकडे का टोटा रहता है तो ये स्पॉट नजर आते हैं । पॉकेट गरम हुआ तो बरिस्ता , मैकडी , या फिर कॉफी कैफे डे के चक्कर लगने लगे .. भई अपनी भी कुछ इज्जत है कि नहीं । लेकिन अब क्या करें .. अब सब कुछ होते हुए भी इन सब में दिल नहीं लगता अब तो कैंडल लाइट डिनर का टाइम का जमाना आ गया है ... सो पांच सितारा होटलों की दुनिया में आलू बुखारा से लेकर पास्ता ढूंढते फिरते हैं । अरे जनाब, ये तो हसीनाओं के बीच रहने की हसीन दुनिया है .. एक दुनिया वो भी हैं जहां प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी, तृतीयं कालरात्रि .. की तरह दुर्गा की दसों अवतार घर में इंतजार कर रही होती है । थके हारे भूखे आप भले ही घर पहुंचे हों लेकिन महबूबा को देखते ही सारी भूख काफूर हो जाती है । वहां आप खाते नहीं बीबी आपको खाती है । याद है, कब उन्हें लेकर बाहर डिनर पर गए थे आप । चलिए अच्छे बच्चे/पति की तरह जल्दी से तैयार हो जाइए । आज का टिप्स-- खायें वहीं जो महबूबा (शादीशुदा इसे पत्नी माने) मन भाए।

Thursday, March 22, 2007

ये मॉर्निंग शिफ्ट

ये मॉर्निग शिफ्ट भी अजीब शिफ्ट है। उबासी लेते हुए सूजी आंखों के साथ आप ऑफिस पहुंच जाते हैं जहां कुछ लोग शय्या पर गिरने की हालत में होते हैं और कुछ उठकर भी लुढकने की हालत में। चाय की तलब होती है लेकिन हेडलाइन की आफत। ब्रेकिंग न्यूज नहीं तो क्या कुछ तो करना है । ऐसे कैसै चलेगा । आदत से मजबूर हूं । इसलिए चाहकर भी 12 बजे से पहले नींद अपने आगोश में मुझे नहीं लेती । रुठी हुई माशूका की तरह इठलाती रहती है । और मै मनाता रहता हूं । आखिरकार मानती है लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी रहती है । एक दिन मन में आया पूजा पाठ शुरु कर दूं । मन को शांति मिलेगी । लेकिन कमबख्त वक्त ने दगा दे दिया । शिफ्ट बदलती रही । आज जिस वक्त पर उठा था । कल उस वक्त पर सोने की तैयारी में था । शिफ्टों में हमारी जिंदगी भी अपनी जगह से शिफ्ट हो गई है । पता नहीं मेरे जैसे और कितने लोगों को ऐसा एहसास होता है ।

Wednesday, March 21, 2007

पहली पाती

दिल की कई बात दिल में ही रह गई. कोई कोना ना मिला । मिलता तो कुछ दिल का गुबार, कुछ मन का मलाल, कुछ यादगार लम्हे , तो कुछ भूल जाने वाले पल सब सहेज कर वहां रख देता । लेकिन कोना न था । कोने की तलाश में अपनी मंडली के साथ कभी पनवारी की दुकान तो कभी गुप्ता जी का ढाबा , कभी जेएनयू के जंगल तो कभी दिल्ली युनिवर्सिटी कैंपस हर जगह खाक छानता रहा । जगह सभी एक से बढकर एक थे लेकिन कोना न था .. वक्त बीतता गया लम्हा गुजरता गया .. यादो के पन्नें बढते गए और जिंदगी छोटी होती गई .. लेकिन तलाश का अंत न हुआ । अब क्या कहें. जो बीत गई सो बात गई .. अब जो है सो है .. इसलिए तलाश मैने छोड दी और खुद से बनाया एक कोना । एक कोना जहां न कोई बंदिश नहीं है और न ही है कोई पाबंदी .. । तो आपका कोना इंतजार कर रहा है आपका ...